महाकालेश्वर शिव पुराण में वर्णित कथा के अनुसार उज्जैनी, उज्जैन का हुआ करता था. उज्जैन में चंद्रसेन राजा का साशन हुआ करता था. राजा भगवान् शिव के परम भक्त थे. भगवान शिव के पार्षदों में मणिभद्र पार्षद प्रधान था जो राजा चंद्रसेन का मित्र भी था . एक बार प्रसन्न होकर मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को चिंतामणि नामक महामणि दी जिसे राजा ने अपने गले में धारण कर लिया जिसके बाद उस दिव्य मणि के प्रभाव से राजा का प्रभाव और तेज हो गया और उनकी कीर्ति चारो दिशाओं में फैलने लगी .
जब दूसरे देशों के राजाओं को यह बात पता चली तो वह भी इस दिव्यमणि को बल पूर्वक पाने की कोशिश में उजैन पर आक्रमण करने लगे स्वयं को हारता हुआ देख राजा अंततःशिव जी के शरण में गए और उनकी भक्ति भाव से आराधना करने लगे. उसी समय गोपी नाम की एक विधवा अपने पांच वर्ष के पुत्रके साथ महाकालेश्वर के दर्शन करने आयी राजा को ध्यान मग्न देख बालक को भी शिव भक्ति करने की भावना जाग्रत हुई फिर घर आकर एक शिला रख कर अपने घर में बैठकर भक्ति भाव से शिव जी की पूजा करने लगा. कुछ देर पश्चात जब उसकी माता ने बुलाया तो वह नहीं गया तब उसकी माता स्वयं उस स्थान पर आई जहां बालक ध्यान में बैठा था वहां भी उसकी माता ने पुकारा किंतु वह ध्यान में लीन रहा .
मां ने क्रोधित होकर पूजन सामग्री उठाकर फेंक दिया तो उसने अपनी पूजा को नष्ट देख कर बहुत दुख हुआ और देव महादेव करता हुआ वहीं मूर्छित हो गया जब होश में आया तो उसने देखा कि भगवान शिव की कृपा से एक सुंदर मंदिर निर्मित हो गया मंदिर के शिवलिंग विराजमान था एवं पूजा की सामग्री भी यथावत रखी हुई थी जब उसकी मां को यह सब पता चला तो मन ही मन खुद को कोशने लगी राजा चंद्रसेन भी सूचना मिलने पर उसके पास दर्शन को पहुचे कुछ देर बाद बाकी राजा भी जो युद्ध कर रहे थे वहां आए और शिव लिंग के दर्शन किए .और तभी से भगवान शिव महाकाल के रुप में उज्जैन में विराजमान है .

ओंमकारेश्वर एक बार की बात हैं नारद मुनि शिव भक्त गण के समीप जा कर भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे. इसके बाद नारद मुनि गिरिराज विंध्य के पास गए . गिरिराज विंध्य ने बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया और बोले मेरे पास सब कुछ है यहां किसी चीज की कोई कमी नहीं है विंध्य की अभिमान भरी बातें सुनकर नारद मुनि खड़े हो गए और कोई जवाब नहीं दिया तब विंध्य बोले आपने मेरे याह कौन सी कमी नारद जी बोले यहां सब कुछ है फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊंचा है उसके शिखर देव लोक तक जा पहुंचे है किन्तु तुम्हारे शिखर अभी बहुत छोटे है यह कहकर वाह से नारद जी तत्काल ही चले गए.
उनकी बातें सुनकर विंध्य को धिक्कार महसूस होने लगा तत्पश्चात विंध्य ने शिव जी की छह माह तक घोर तपस्या की विंध्य की तपस्यासे प्रसन्न होकर शिवजी प्रकट हुए और उनसे मनवांछित वर मांगने को कहा विंध्य बोले हे प्रभु आप तो सदैव भक्तवत्सल है मुझे हर कार्य में सिद्धि का वर दीजिए .
यह सुन कर भगवान शिव ने यह अभीष्ट वर दे दिया और बोले पर्वतराज तुम जैसा चाहोगे वैसा ही होगा उधर जब ऋषि गणों देवताओं को ज्ञात हुआ कि इस समय भगवान शिव विंध्याचल पर्वत पर विराजमान है तो वे सभी वहां तत्काल ही पहुंच गए और वहां पहुंचकर सभी भगवान शिव से बोले हे देवाधिदेव आप यहां स्थिर रूप में निवास करें देवताओं तथा ऋषि यों की बात सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए और वहां जो एक ओंकार लिंग था वह दो रूपों में विभक्त हो गया जिसमें से एक लीन ओंकारेश्वर और दूसरा अमलेश्वर नाम से जाना जाने लगा भगवान शिव का यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश की नर्मदा नदी के पास शिवपुरी पर स्थापित है .
केदार नाथ ज्योतिर्लिंग: विष्णु जी के नर और नारायण नाम के दो अवतार हुए थे वे दोनों बद्रिकाश्रम तीर्थ में पार्थिव शिवलिंग बनकर तपस्या करने लगे ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव प्रतिदिन भगवान के बनाए हुए पार्थिव शिवलिंग में पूजित होनेके लिऐ स्वयं उनके पास आया करते थे जब उन दोनों के पूजन करते हुए बहुत दिन बीत गए तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन दोनों से कहा तुम दोनों मुझसे वर मांगो नर और नारायण दोनो ने भगवान शिव से बोले देवेश्वर यदि आप हम दोनों से सच में पसंद है प्रसन्न हैं तो अपने स्वरूप से पूजा ग्रहण करने के लिए यहां स्थित हो जाइए तभी से हिमालय के केदार तीर्थ में भगवान शिव स्थित हो गए जिसे आज केदारनाथ के नाम से जाना जाता है.